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कल्चुरी वंश के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण जानकारी।

कलचुरि वंश

कलचुरियों की वंशावली किस नरेश से आरम्भ होती है, उसके बारे में अनुमान किया जाता है कि कोकल्लदेव से आरम्भ होती । कोकल्लदेव के वंशज कलचुरी कहलाये। कलचुरि हैदयों की एक शाखा है। हैदयवंश ने रतनपुर और रायपुर में दसवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी तक शासन किया ।

कोकल्ल महाप्रतापी राजा थे, पर उनके वंशजों में जाजल्लदेव (प्रथम), रत्नदेव (द्वितीय) और पृथ्वीदेव (द्वितीय) के बारे में कहा जाता है कि वे न सिर्फ महापराक्रमी राजा थे, बल्कि छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक उन्नति के लिए भी चेष्टा की थीं।
जाजल्लदेव (प्रथम) ने अपना प्रभुत्व आज के विदर्भ, बंगाल, उड़ीसा आन्ध्रप्रदेश तक स्थापित कर लिया था। युद्धभूमि में यद्यपि उनका बहुत समय व्यतीत हुआ, परन्तु निर्माण कार्य भी करवाये थे । तालाब खुदवाया, मन्दिरों का निर्माण करवाया। उसके शासनकाल में सोने के सिक्के चलते थे - उसके नाम के सिक्के। ऐसा माना जाता है कि जाजल्लदेव विद्या और कला के प्रेमी थे, वे आध्यात्मिक थे। जाजल्लदेव के गुरु थे गोरखनाथ। गोरखनाथ के शिष्य परम्परा में भर्तृहरि और गोपीचन्द थे - जिनकी कथा आज भी छत्तीसगढ़ में गाई जाती है।
रतनदेव के बारे में ये कहा जाता है कि वे एक नवीन राजधानी की स्थापना की जिसका नाम रतनपुर रखा गया और जो बाद में के नाम से जाना गया। रतनदेव भी बहुत ही हिंसात्मक युद्धों में समय नष्ट की, पर विद्या और कला के प्रेमी थे। इसलिए विद्वानों की कदर थी। रतनदेव ने अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया और तालाब खुदवाया।

पृथ्वीदेव द्वितीय भी बड़े योद्धा थे। कला प्रेमी थे। उसके समय सोने और ताँबे के सिक्के जारी किये गये थे।
कलचुरियों विद्वानों को प्रोत्साहन देकर उनका उत्साह बढ़ाया करते थे। राजशेखर जैसे विख्यात कवि उस समय थे। राजशेखर जी कि काव्य मीमांसा और कर्पूरमंजरी नाटक बहुत प्रसिद्ध हैं। कलचुरियों के समय में विद्वान कवियों को राजाश्रय प्राप्त था। इसीलिये शायद वे दिल खोलकर कुछ नहीं लिख सकते थे। राजा जो चाहते थे, वही लिखा जाता था।
कलचुरि शासको शैव धर्म को मानते थे। उनका कुल शिव-उपासक होने के कारण उनका ताम्रपत्र हमेशा "ओम नम: शिवाय" से आरम्भ होता है। ऐसा कहा जाता है कलचुरियों ने दूसरों के धर्म में कभी बाधा नहीं डाली, कभी हस्तक्षेप नहीं किया। बौद्ध धर्म का प्रसार उनके शासनकाल में हुआ था।
कलचुरियों ने अनेक मंदिरों धर्मशालाओं का निर्माण करवाया।
वैष्णव धर्म का प्रचार, रामानन्द ने भारतवर्ष में किया जिसका प्रसार छत्तीसगढ़ में हुआ। बैरागी दल का गठन रामानन्द ने किया जिसका नारा था -
"जात-पात पूछे नहीं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई" -
हैदय-वंश के अन्तिम काल के शासक में योग्यता और इच्छा-शक्ति न होने का कारण हैदय-शासन की दशा धीरे-धीरे बिगड़ती चली गयी और अन्त में सन् 1741 ई. में भोंसला सेनापति भास्कर पंत ने छत्तीसगढ़ पर आक्रमण कर हैदय शासक की शक्ति प्रतिष्ठा को नष्ट कर दिया।

[जय द्वारा साझा किया गया]

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